लेखनी कहानी -17-May-2023-दीर्घ कथा संग्रह
गोनू हुए पराजित
बसुआ यानी बासुदेव । गोनू के टहल -टिकोला में लगा रहने वाला उनके गाँव का एक किशोर। बसुआ, जिसका अपना सगा कोई नहीं था । गाँव में उसकी एक छोटी-सी झोंपड़ी थी । गोनू के खेत के पास । बसुआ दिन भर इधर-उधर रहता। किसी ने कुछ करने को कहा, कर दिया । अलमस्त था बसुआ । न दिन की फिक्र, न रात की चिन्ता । जब थक जाता तो चला आता अपनी झोंपड़ी में । उसे झोंपड़ी कहने की बजाय उसका रैन बसेरा कहें तो ज्यादा ठीक होगा-बसुआ मस्त-मलंग की तरह पड़ा रहता । 'न उधो का देना, न माधो का लेना !' निश्चिन्त रहता बसुआ। किसी की उसे परवाह नहीं थी । न कोई छोटा- मोटा, न कोई बड़ा । उसकी नजर में सब बराबर ! कोई बच्चा भी उसे किसी काम के लिए कहता तो वह 'जी मालिक' कहकर उसका काम कर देता । कहीं से दो जून रोटी मिल गई तो खा लिया और चला आया अपनी झोंपड़ी में । यही थी बसुआ की दिनचर्या।
एक दिन गोनू का हरवाहा बीमार पड़ गया । गोनू को अपना खेत तैयार करना था । वे सोचने लगे-अब क्या करें ! अचानक खेत की मुँडेर पर उन्हें बसुआ दिख गया । वे खुश हो गए । उन्हें लगा कि बसुआ उनका कहना नहीं टालेगा। इसलिए उन्होंने बसुआ को आवाज दी-“बसुआ-ओ बसुआ !"
बसुआ ने उनकी आवाज सुनी तो वहीं से चिल्लाया -"पाँव लागन मालिक!" और दौड़ता हुआ गोनू के पास पहुंच गया ।
गोनू ने कहा-“बसुआ, दो-चार दिन तू मेरा खेत जोत दे! हरवाहा बीमार पड़ गया है । वह ठीक हो जाएगा तब तक भले ही किसी और काम में लग जाना!"
बसुआ मान गया । गोनू झा के घर से हल और बैल ले आया और खेत की जोताई में लग गया ।
गोनू दरबार के लिए तैयार होकर अपने खेत की ओर से ही दरबार के लिए निकले । उन्होंने देखा, बसुआ तन्मयता के साथ खेत जोतने में लगा हुआ है। मन ही मन खुश होते हुए गोनू झा ने बसुआ को आवाज दी-“ओ बसुआ ! जरा इधर आ !"
बसुआ खेत के बीच से ही चिल्लाया-“आया मालिक !” और दौड़ता हुआ गोनू झा के पास पहुँचा और हाँफते हुए पूछा-“जी, मालिक?”
गोनू ने बसुआ से कहा “देख बसुआ !... मन लगा के खेत जोतना ! अपना काम समझ के जितना कर सको, करना। शाम को दरबार से लौट- कर तुम्हें हलवा खिलाऊँगा!"
बसुआ खुश हो गया और बोला-“जी, मालिक!"
इसके बाद गोनू दरबार चले गए और बसुआ पूरे उमंग के साथ खेत जोतने में लग गया । जब थोड़ी थकान होती, बसुआ गाने लगता-“मालिक आएँगे! हलवा लाएँगे ! मैं तो जी भर के हलुआ खाऊँगा... मस्त होके सोने जाऊँगा...!"